000 | 03260 a2200253 4500 | ||
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001 | RB1260 | ||
003 | IN-BhIIT | ||
005 | 20240314153309.0 | ||
008 | 240314b |||||||| |||| 00| 0 eng d | ||
020 | _a9789389178210 | ||
040 | _aIN-BhIIT | ||
041 | _ahin | ||
082 |
_a891.443 _bTAG/R |
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100 |
_aTagore, Rabindranath. _eAuthor _93169 |
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245 |
_6880-02 _aRajshri / _cby Rabindranath Tagore. |
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260 |
_aNew Delhi : _bFingerprint, _c2019. |
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300 |
_a152 p. : _bill. ; _c18 cm. |
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500 | _aराजर्षि रचना-क्रम में राजर्षि (1885) रवीन्द्रनाथ का दूसरा उपन्यास है। इसके कथानक का केन्द्रीय-सूत्र त्रिपुरा के इतिहास से ग्रहण किया गया है और रचनाकार ने अपनी कल्पना व नवीन उद्भावना शक्ति के सहारे उसे उपन्यास का रूप दिया है। सारी घटनाएँ गोविन्दमाणिक्य और रघुपति के चारों ओर घूमती हैं। ये दोनों पात्र वस्तुत दो अलग प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं। नक्षत्रमाणिक्य, बिल्वन ठाकुर, जयसिंह, शाह शुजा, केदारेश्वर अपने-अपने ढंग से उपन्यास के कथानक में झरनों, नदियों, अन्तरीपों, गह्वरों के समान दृश्य-अदृश्य दशाओं का निर्माण करते हैं। मन को सबसे अधिक झकझोरते हैं हासि और ताता। दोनों बालक लक्ष्य बेधने में लेखक की सबसे अधिक सहायता करते हैं। राजर्षि में रवीन्द्रनाथ का कवि रूप भी है तथा उनकी सांस्कृतिक व लोक-चेतना भी। अनुवाद में मूल कथ्य के साथ इनकी रक्षा की चेष्टा भी की गई है। आवश्यकतानुसार पाद-टिप्पणियाँ देकर बंगाली-समाज की परम्पराओं को सबके लिए सुलभ करने का प्रयास किया गया है। सामग्री की प्रामाणिकता के सन्दर्भ में यह अनुवाद पाठकों को निराश नहीं करेगा।. | ||
504 | _aIncluding bibliographical references and index. | ||
650 |
_aHindi fiction. _916150 |
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650 | _aHistorical fiction. | ||
880 |
_6100-2 _aराजर्षि / _cरवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा। |
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942 | _cRB | ||
999 |
_c13739 _d13739 |